पुस्तक समीक्षाःअनूप बरनवाल ‘देशबंधु’ की पुस्तक ‘एक देश-एक चुनाव’
पुस्तक समीक्षाः ‘एक देश-एक चुनाव: भारत में राजनीतिक सुधार की संभावना’ चुनावी प्रक्रिया पर एक गहरा अध्ययन
‘एक देश-एक चुनाव: भारत में राजनीतिक सुधार की संभावना’- लेखक अनूप बरनवाल ‘देशबंधु’ ने इस किताब में सभी तथ्यों पर बात की हैं। चूंकि लेखक पेशे से विधिवक्ता हैं तो उन्होंने स्पष्ट आंकड़ों के साथ तथ्य को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। कुल तीन खंडों में बंटे इस पुस्तक में एक देश-एक चुनाव को काफी बारीकी से समझाया गया है। इसका महत्व तब और अधिक बढ़ जाता है, जब देश में एक देश-एक चुनाव जैसा मुद्दा गरम है।
लेखक ने इस किताब में पृष्ठभूमि को लेकर काफी मेहनत की है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए। लेखक ने चुनावी इतिहास से इसकी पृष्ठभूमि की शुरुआत की है और काफी सटीकता के साथ भविष्य के साथ जोड़ा है। भारत में शुरुआती चुनाव को लेकर जिस तरह से स्पष्ट बातें लिखी गई हैं। वैसा बहुत कम देखा जाता है।
एक देश-एक चुनाव पुस्तक क्यों?
अनूप बरनवाल ‘देशबंधु’ ने पुस्तक में जिस तरह से आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, वह काबिल ए तारीफ है। टेबल से माध्यम से बताए गए आंकड़ों को समझना काफी सरल हो जाता है। हालांकि, इसमें अखबार के अधिकतर आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। अगर किसी सरकारी स्रोत के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से आंकड़े प्रस्तुत होते तो इसकी विश्वसनीयता और अधिक बढ़ जाती।
पुस्तक लेखन में कई बार देखा जाता है कि लेखक किसी एक विचार से प्रेरित हो जाते हैं और उस हिसाब से अपना तर्क वितर्क देते हैं। ऐसा इस पुस्तक में देखने को नहीं मिला है। लेखक ने सटीकता और तथ्यों को महत्व दिया है न कि निजी विचार को। तथ्य जितना मजबूत होता है, उसकी विश्वसनीयता उतनी अधिक होती है, जो इस किताब में देखने को मिला है।
देश में समय-समय पर एक देश-एक चुनाव की मांग होती रही है, ऐसे में समझने वाली बात यह है कि क्या देश में ऐसा हो सकता है? क्या फिर से पहले जैसी व्यवस्था लागू की जा सकती है? ऐसे में इससे जुड़ी सभी संभावनाओं को समझना होगा कि क्या ऐसा हो सकता है…। जिस पर लेखक ने गहरा प्रकाश डाला है और उन सभी संभावनाओं का जिक्र किया है कि यह संभव है या नहीं। इससे यह समझा जा सकता है कि अगर संभव है तो कैसे और अगर संभव नहीं है तो क्यों नहीं?
पुस्तक में एक देश-एक चुनाव को लेकर उन सभी चुनौतियों और समाधान के बारे में बात की गई, जो इसमें उत्पन्न हो सकती है। लेखक ने वर्तमान में संविधान की स्थिति क्या है इस पर भी बात की है। साथ ही शुरुआत से लेकर अब तक की चुनावी व्यवस्था पर गहराई से प्रकाश डाला है। इस पुस्तक के माध्यम से चुनावी प्रक्रिया को समझने के साथ-साथ भारत की राजनीतिक स्थिति भी समझी जा सकती है।
लेखक ने अंत में अपेक्षित संविधान संशोधन को लेकर कुछ बातें लिखी हैं, जो काफी महत्वपूर्ण है और इस पर ध्यान देना चाहिए। कुछ अपेक्षित संशोधन का जिक्र किया गया है, जो समझने योग्य है। ऐसे विचारों पर ध्यान देने की जरूरत है।
प्रवीण प्रसाद सिंह
(यह लेखक के अपने विचार हैं)